Friday, April 19, 2024
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BLOG: मंदिर-मस्जिद और जाति-धर्म के नारे लगाकर कोई भारतीय बन सकता है क्या?

जो व्यवस्था सबको समानता के नाम पर बनाई गई थी, अगर वो व्यवस्था देश में असमानता की स्थिति पैदा करे तो इसमें सुधार जरूरी है..

Surbhi Sharma Written by: Surbhi Sharma
Updated on: April 24, 2018 22:34 IST
Surbhi R Sharma blog - India TV Hindi
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कुर्सी की चाहत और ताकत के नशे के सामने राष्ट्र की सोच और राष्ट्र के प्रति सोच क्यों कमज़ोर पड़ती जा रही है ?

क्या हमारा जो कर्तव्य जाति के प्रति है, धर्म के प्रति है, वैसा ही कर्तव्य राष्ट्र के प्रति नहीं है ?
ये कैसी सोच है जो राजनीति की गलत परंपरा बनकर देश में वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा कर रही है?
क्या हम भारतीय हैं, या सारे सवाल सिर्फ हिन्दू-मुसलमान, दलित और सवर्ण के इर्द-गिर्द ही घूमते रहेंगे ?
क्या हम इस मानसिकता से आगे आकर देश के विकास में योगदान देंगे या फिर सिर्फ जाति व्यवस्था की लड़ाई जारी रहेगी ?

भारत में भारतीयों को ढूंढ़ना मुश्किल हो गया है 

क्योंकि आज सिर्फ जाति और धर्म का शोर है...कोई भारत और भारतीय की बात करना नहीं चाहता...
कोई मस्जिद गिरा रहा है...कोई मंदिर बनाने की बातें कर रहा है...कहीं बाबा साहब अंबेडकर के नारे लग रहे हैं... क्या सिर्फ ऐसा करके राष्ट्रीय सोच को बढ़ावा मिलेगा ?

जो व्यवस्था सबको समानता के नाम पर बनाई गई थी, अगर वो व्यवस्था देश में असमानता की स्थिति पैदा करे तो इसमें सुधार जरूरी है..
कब तक हम राजनीतिक वोट बैंक के इस खेल में फंसे रहेंगे ?
लोगों की टिप्पणियां, बहस और गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होता है
आज जिनके नाम पर शोर शराबा किया जा रहा हैं, क्यों उन्हीं की कही गई बातों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है ???

बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के कहे गए शब्द थे....
"मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों ना हो, यदि वो लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, खराब निकले...तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा...दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना ही खराब क्यों न हो, यदि वे लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा"

ये कैसी विडम्बना है कि 21वीं सदी में भी हम भारत के लोग भ्रम फैलाकर जातीय लड़ाई में अभी भी उलझे हुए हैं???
हम नई चुनौतियों और अवसरों को समझने, उनके अनुरूप अपनी क्षमताओं का विकास करने की बजाए, जात-पात की राजनीति से देश को बर्बाद करने पर तुले हैं
आंदोलन तो सदियों से होते आए हैं, हक की लड़ाई सड़क पर हर बार आई हैं, चाहे जाट हो, गुर्जर हो, पाटीदार हो, करणी सेना या फिर दलित, पिछड़े वर्ग की नाराज़गी हो...
लेकिन हकीकत में कमज़ोर तो इन लड़ाईयों ने...हमें ही किया है
आपसी अविश्वास, नफरत और खाइयां सभी ने बढ़ाई हैं...हम ये देखते आए है, झेलते आए हैं

मौजूदा हालात मे कहना गलत नहीं कि हमारे देश में जाति एक सामाजिक समस्या के रूप मे उभर रही हैं और हमारे देश की बागडोर संभाल रहे लोग इसमें अपना राजनीतिक समाधान ढूंढ़ने में बर्बाद कर रहे हैं।
ये सब महज़ इसलिए क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल सत्ता से बाहर रहना बर्दाश्त नहीं कर सकता और न ही देशहित में आम सहमति कायम कर सकता है
राजनीति के इस शतरंज में सभी जातियां अपने आकाओं का प्यादा बन कर रह गई हैं।

हम एक-दूसरे के प्रति इतने असंवेदनशील हो गए कि हम ये भूल गए है कि ये मामले जातिगत नहीं..बल्कि मानवीय संवेदना के हैं

(ब्‍लॉग लेखिका सुरभि आर शर्मा देश के नंबर वन चैनल इंडिया टीवी में न्‍यूज एंकर हैं) 

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