नई दिल्ली: देश के तिरंगे में लपेटकर भारत माता के जिन शहीदों को उनके अपनों के पास लाया जाता है उनकी रुह को कितना सकूं मिलता होगा आप इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। जीत की खुशी में जब कोई भारतीय खिलाड़ी अपने बदन पर तिरंगा लपेटकर मैदान के चक्कर लगाता है उस अहसास को आप शब्दों में बयां नहीं कर सकते। जब हर 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से लेकर देश के कोने कोने में हर सरकारी और प्राइवेट संस्थानों में तिरंगे को फहराने की रवायत अदा की जाती है, वह भी हर किसी को सुखन देती है, लेकिन जब कभी भी इस तिरंगे को “15 अगस्त” के बाद चाहे- अनचाहे जलालत झेलनी पड़ती है उसकी टीस इतना गहरा जख्म दे देती है कि शहीदों रणबांकुरों की कुर्बानी भी शर्मिंदा हो जाए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि ऐसा होता है।
हम 15 अगस्त को अपने बच्चों को जिस तिरंगे के साथ स्कूल भेजते हैं अगले दिन उस तिरंगे के बारें में यह बात करना भी मुनासिब नहीं समझते कि आखिर देश की आन बान और शान माने जाने वाले तिरंगे की इज्जत पर तो कोई आंच नहीं आई, यानी वो अब भी उसी सम्मानित जगह पर है या नहीं जहां उसे होना चाहिए। जरा सोचिए।
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