Thursday, March 28, 2024
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न्यूटन

न्यूटन' फिल्म में एक डायलॉग है, ‘आप हमसे कुछ घंटे की दूरी पर रहते हैं लेकिन हमारे बारे में कुछ नहीं जानते हैं।‘ यह डायलॉग दरअसल हम पर तंज कसता है।

Jyoti Jaiswal Jyoti Jaiswal
Updated on: October 05, 2017 12:39 IST
NEWTON MOVIE REVIEW
Photo: PTI NEWTON MOVIE REVIEW
  • फिल्म रिव्यू: न्यूटन
  • स्टार रेटिंग: 3 / 5
  • पर्दे पर: 22 सितंबर 2017
  • डायरेक्टर: अमित मर्सुकर
  • शैली: ब्लैक कॉमेडी ड्रामा

आप शहरों में, कस्बों में या फिर गांवों में रहते हैं, वोट देते हैं, नए-नए फोन, नोटबंदी और जीएसटी पर बातें करते हैं, फेसबुक पर लंबे-लंबे फेसबुक पोस्ट लिखकर ज्ञान देते हैं,  लेकिन क्या आपने कभी उन इलाकों की कल्पना की है जहां इस बात से फर्क ही नहीं पड़ता है कि दिल्ली में कौन सरकार बना रहा है, हमारे लिए चुनाव में कौन खड़ा है?  ‘नोटबंदी’ और ‘जीएसटी’ से हमारी जिंदगी में क्या प्रभाव पड़ेगा? निर्देशक अमित मर्सुकर ‘न्यूटन’ के साथ हमें एक ऐसी ही जगह पर लेकर चलते हैं, जहां हम करीब से उन लोगों से रुबरू होते हैं, जहां अभी नया-नया संविधान पहुंच रहा है, और जहां चुनाव के बाद सिर्फ इतना ही फर्क पड़ता है कि नेताओं के पोस्टर बदल जाते हैं। 

फिल्म में नूतन कुमार खुद का नाम बदलकर न्यूटन खुद से जरूर रख लेते हैं, फिल्म के पहले सीन में न्यूटन को सेब खाते जरूर दिखाया गया है, और न्यूटन के कैरेक्टर को फिजिक्स में एमएससी पास किया हुआ जरूर बताया गया है, लेकिन फिल्म का नाम न्यूटन यूं ही नहीं रखा गया है। बचपन में आप सभी ने न्यूटन के गति के नियम जरूर पढ़े होंगे। न्यूटन का पहला नियम कहता है कि कोई भी वस्तु तब तक विराम अवस्था में या एकसमान गति की अवस्था में रहती है जब तक उस पर कोई बाह्य बल न लगाया जाए। दूसरा नियम कहता है कि किसी भी पिंड का संवेग परिवर्तन की दर से लगाये गये बल के बराबर होता है, और  न्यूटन के गति का तीसरा नियम कहता है- प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। फिल्म में भी कुछ यही दिखाया गया है, जब तक आप प्रयास नहीं करेंगे प्रतिक्रिया नहीं होगी, और चीजें विराम अवस्था में रहेंगी या फिर एक ढर्रे पर चलती रहेंगी। हालांकि फिल्म में यह भी बताया गया है कि कोई भी बदलाव एकबार में नहीं हो जाता है, धीरे-धीरे और प्रयास करने पर होता है। फिल्म में एक डायलॉग है, 'कोई भी बड़ा काम एक दिन में नहीं हो जाता है।'

कहानी

फिल्म की कहानी नूतन कुमार उर्फ न्यूटन (राजकुमार राव) से शुरू होती है। न्यूटन छोटे शहर का एमएससी पास लड़का है, जिसकी नई-नई सरकारी नौकरी लगती है। न्यूटन ईमानदार कर्मचारी है, या संजय मिश्रा की भाषा में कहे तो ‘उसे अपनी ईमानदारी का घमंड है।‘ इलेक्शन के वाले दिन न्यूटन की ड्यूटी छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके में लगती है। घने जंगलों के बीच बसे उस गांव में 76 लोग वोटर लिस्ट में हैं, न्यूटन हेलीकॉप्टर से गांव तो पहुंच जाता है, लेकिन सुरक्षा के लिए तैनात असिस्टेंट कमान्डेंट आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी) न्यूटन लगातार डराकर वोटिंग न कराने के लिए उकसाता है। न्यूटन तो ईमानदार है वो किसी की नहीं सुनता आखिर पोलिंग बूथ पर पहुंच जाता है। लेकिन उसके सामने एक नई समस्या आकर खड़ी हो जाती है, नक्सलियों के डर से गांव वाले वोट डालने ही नहीं आते, अगर वो आ भी जाए तो उन्हें पता ही नहीं उनके लिए चुनाव में कौन खड़ा है? उन्हें पता ही नहीं वोटिंग से क्या होने वाला है? वो जिंदगी में पहली बार ईवीएम मशीन देख रहे होते हैं। ऐसे में न्यूटन किस तरह लोगों का वोट लेगा? वोटिंग हो भी पाएगी या नहीं? वोटिंग के दौरान नक्सली हमला तो नहीं करेंगे? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब आपको सिनेमाहॉल में मिलेगा।

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फिल्म का निर्देशन अमित मर्सुकर ने किया है, निश्चित रूप से फिल्म का कोई हीरो है तो वो इसके निर्देशक ही हैं। उन्होंने बिना किसी लेक्चर के हमें एक अच्छी कहानी दिखाई है, फिल्म में मैसेज है, कई चुटीले डायलॉग हैं लेकिन कहीं भी लंबा चौड़ा लेक्चर आकर हमें बोर नहीं करता है। स्लो स्पीड में फिल्म चलती है, हालांकि इस वजह से कई लोगों को यह फिल्म बोर भी कर सकती है। लेकिन आप अगर दिमाग घर पर छोड़कर नहीं बल्कि सिनेमाहॉल ले जाकर फिल्म देखना चाहते हैं तो ‘न्यूटन’ आपके लिए है।

फिल्म में एक डायलॉग है, ‘आप हमसे कुछ घंटे की दूरी पर रहते हैं लेकिन हमारे बारे में कुछ नहीं जानते हैं।‘ यह डायलॉग दरअसल हम पर तंज कसता है। यह एक ब्लैक कॉमेडी फिल्म है, जिसके डायलॉग सुनकर आपके चेहरे पर हंसी तो आएगी लेकिन थोड़ी देर बाद आपको एहसास होगा कि यही इस देश की कड़वी सच्चाई भी है।

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फिल्म आपको पूरी तरह बांधकर रखती है। फिल्म में न ही कोई गाना है, न ही कोई रोमांटिक सीन है, फिर भी आपको मजा आएगा। हालांकि सेकंड हाफ में आकर फिल्म थोड़ी कमजोर हो गई है, और एक-दो सीन बनावटी लगते हैं, लेकिन ओवरऑल फिल्म देखने लायक है।

एक्टिंग

अभिनेता राजकुमार राव फेस एक्सप्रेशन में माहिर हैं। फिल्म में वो अपने हाव-भाव और चेहरे से ही काफी कुछ कह जाते हैं। उन्हें जो भी किरदार दिया जाता है वो उसमें ढल जाते हैं। राजकुमार के अलावा फिल्म में पंकज त्रिपाठी सेकंड लीड हैं, जो के असिस्टेंट कमांडेंट के किरदार में हैं। राजकुमार के साथ उनके संवाद और और डायलॉग बोलने का तरीका लाजवाब है। इससे पहले वो ‘बरेली की बर्फी’ में कृति सेनन के पिता के किरदार में दिख चुके हैं। इस फिल्म में एक बार फिर उन्होंने साबित कर दिया है कि सपोर्टिंग कास्ट मजबूत हो तो फिल्म काफी प्रभावी बन जाती है। संजय मिश्रा भी फिल्म में छोटी मगर अहम भूमिका में नजर आए हैं। अंजलि पाटिलएक लोकल महिला का किरदार में हैं, उन्हें देखकर लगता ही नहीं है कि वो अभिनय कर रही हैं, वो बिल्कुल सहज और किरदार में फिट लग रही हैं।

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फिल्म में चुनावी समस्या के अलावा कुछ और भी मुद्दों पर ध्यान खींचा गया है, जैसे बाल विवाह, दहेज प्रथा, लड़कियों की शिक्षा आदि। न्यूटन जब रिश्ते के लिए जाता है और कहता है वो लड़की पढ़ी-लिखी नहीं है कम से कम ग्रेजुएट तो होनी चाहिए लड़की। इस पर उसके पिता का जवाब होता है, ‘ग्रेजुएट लड़की क्या पैर दबाएगी तुम्हारे मां के’

जरूर देखिए न्यूटन

इस शुक्रवार संजय दत्त की कमबैक फिल्म ‘भूमि’ और श्रद्धा कपूर की फिल्म ‘हसीना पारकर’ भी रिलीज हो रही है। तीनों ही फिल्में अलग जॉनर की हैं, लेकिन अगर आप अच्छे सिनेमा देखने के शौकीन हैं तो ‘न्यूटन’ आपके लिए है।

स्टार रेटिंग

इस फिल्म को मेरी तरफ से 3 स्टार।

-ज्योति जायसवाल @JyotiiJaiswal​ 

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