Tuesday, April 23, 2024
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'घाटी में कश्मीरी पंडितों को अलग बसाना अच्छा विचार नहीं'

नई दिल्ली: कश्मीर के 90 के दशक के शुरुआती दिनों के हालात पर उपन्यास लिखने वाले संचित गुप्ता पलायन कर गए कश्मीरी पंडितों को कश्मीर के अलग क्षेत्रों में बसाने के विचार को अच्छा नहीं

IANS IANS
Published on: February 21, 2017 8:20 IST
Kashmiri Pandits- India TV Hindi
Kashmiri Pandits

नई दिल्ली: कश्मीर के 90 के दशक के शुरुआती दिनों के हालात पर उपन्यास लिखने वाले संचित गुप्ता पलायन कर गए कश्मीरी पंडितों को कश्मीर के अलग क्षेत्रों में बसाने के विचार को अच्छा नहीं मानते हैं। संचित की किताब 'द ट्री विद अ थाउंसैंड एप्पल्स' कश्मीर घाटी के 1990 के दशक के शुरुआती दिनों के हालात पर आधारित है, जब आतंकवाद चरम पर था और घाटी से बड़े पैमाने पर हिंदू पंडित परिवारों का पलायन हुआ था।

संचित को लगता है कि घाटी में अलग बस्तियों में कश्मीरी पंडितों को बसाना पहले से सांप्रदायिकता का दंश झेल रहे जम्मू-कश्मीर के लिए अधिक सांप्रदायिक माहौल पैदा करना है। संचित ने कहा, "धर्म या पहचान के नाम पर जब विचारधाराओं का टकराव होता है तो इससे आम नागरिक सबसे अधिक पीड़ित होते हैं। इसके कारण बच्चे प्रभावित होते हैं, जिनका बचपन हम खुद नष्ट कर देते हैं। यह वही स्थिति है, जिसे मैंने अपने उपन्यास में उजागर करने की कोशिश की है।"

संचित का उपन्यास तीन कश्मीरी मित्रों की काल्पनिक कथा है, जिनमें एक हिंदू व दो मुसलमान हैं, जिनकी जिंदगियां 1990 के शुरुआत में बड़े पैमाने पर हिंदुओं के पलायन के बाद से बदल जाती है।

उन्होंने कहा कि कश्मीर की जनता के प्रति सहानुभूति ने ही उन्हें इस राज्य को अपनी पहली किताब के विषय के चयन के लिए प्रेरित किया।

संचित ने कहा, "मैं 2009 में कश्मीर में रहा था और तब मैंने एक दिन एक 12 वर्षीय कश्मीरी मुसलमान लड़के को 20 वर्षीय भारतीय सैनिक के साथ कावा (कश्मीर का प्रसिद्ध पेय पदार्थ) की चुस्कियां लेते देखा। मेरे कश्मीरी पंडित मित्रों ने मुझे किस्से सुनाएं थे और मैंने वहां देखा कि वे अपनी-अपनी जगह सही हैं, लेकिन दूसरे की बात पर उनका दृष्टिकोण बदल जाता था। मैं अपनी किताब में केवल ईमानदारी के साथ उनकी कहानियों को कहना चाहता था।"

संचित से जब कश्मीर के अलग-अलग क्षेत्रों में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के विचार के बारे में पूछा गया, जिसकी अलगाववादी और मुख्यधारा की पार्टियां, दोनों ही आलोचना कर रही हैं, तो उन्होंने कहा कि वह इसे अच्छा विचार नहीं मानते हैं।

उन्होंने कहा, "दीवारें हमेशा बांटती हैं और अलग-अलग क्षेत्रों में कश्मीरी पंडितों को बसाने का मतलब उन्हें अलग-अलग रखना ही है, फिर चाहे वह कश्मीर में हो या भारत के किसी और क्षेत्र में हो।"

सरकार को लोगों के लिए कश्मीर के अलग-अलग इलाकों में घरौंदे बनाने की जगह उनमें सद्भाव से रहने के लिए विश्वास का निर्माण करना चाहिए।

उन्होंने कहा, "दूसरा पहलू पंडितों (जो यहां आना चाहते हैं) को सुरक्षा प्रदान करना है, क्योंकि आतंकवादी पंडितों और स्थानीय कश्मीरी मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने के लिए इसे एक अवसर के रूप में भुनाना चाहेंगे, जो कश्मीरी हिंदू व मुसलमान दोनों के लिए नुकसानदेह होगा।"

यह किताब 1990 के कश्मीरी युवाओं पर आधारित है, जो पिछले 26 सालों से अपनी मिट्टी में अपने लोगों के साथ लगातार संघर्ष कर रहे हैं।

संचित ने कहा, "इस उपन्यास का एक चरित्र दीवान कश्मीरी पंडितों को समर्पित है, जिन्हें 1990 में अपना घर छोड़ शरणार्थी शिविर में रहना पड़ता है। वहीं, अन्य दो चरित्रों बिलाल और सफीना उन सभी कश्मीरी मुसलमानों के लिए समर्पित हैं, जिनकी जिंदगी बगैर किसी गलती के बर्बाद हो जाती है।"

लेखक ने कहा कि विभाजित समूहों के बीच सुलह की दिशा में पहला कदम बढ़ाने से पहले यह समझना होगा कि इस त्रासदी के किसी भी पीड़ित का दर्द छोटा या बड़ा नहीं है।

संचित कहते हैं कि इस विषय पर किताब लिखने का कभी विचार नहीं आया, जबकि वह श्रीनगर में एक निजी कंपनी के एक क्षेत्रीय विक्रय प्रबंधक के तौर पर कार्य करने के दौरान अपने मित्रों से इस बारे में गहन बातचीत करते थे।

उन्होंने कहा कि वह बातचीत आमतौर पर घाटी के ताने-बाने पर आधारित होती थी।

श्रीनगर के शांतिपूर्ण माहौल में पलने वाले किताब के किरदारों -दीवान भट्ट, बिलाल अहंगर और सफीना- की जिंदगियां अचानक अंधकार से भर जाती हैं और सबकुछ बदल जाता है।

संचित उनकी कहानी बयां करते हैं, "मैं जब वहां से वापस आया और आखिरकार अपनी किताब लिखनी शुरू की तो मेरे दिल और दिमाग में ये सारी घटनाएं तैरने लगीं। पलायन का दौर दीवान को एक शरणार्थी बना देता है और सफीना आतंकवादियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष में अपनी मां को खो देती है और बिलाल अपनी जिंदगी गरीबी और भय के साये में बिताता है।"

दो दशकों के बाद यह दोबारा इकट्ठे होते हैं, लेकिन वे एक-दूसरे को एक चौराहे पर खड़ा पाते हैं।

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